जब तक तुम लौट कर आई मैं जा चुका था।
तुम्हारा लौटना सम्भावित था और मेरा जाना निश्चित। हम दोनों अपने अलग अलग कोण पर घूम रहे थे इसलिए एकदूसरे में सामनें अलबत्ता तो बेहद कम पड़े और यदि पड़े भी तो अपने अपने दृष्टि दोष के साथ।
साथ चलना हमेशा साथी नही बनाता ये बात तुमने एकदिन किसी दुसरे सन्दर्भ में कही थी मगर यकीनन सच कही थी। कई बार हम खुद ही अप्रासंगिक हो जाते है इसमें किसी का कोई दोष नही होता है इसलिए इस विलगता पर किसी भी किस्म की व्याख्या बेमानी है।
मैं जाने के बाद कुछ देर तक विचार शून्य रहा दिशाबोध भी लोप हो गया था कई चौराहे मैंने इसलिए छोड़ दिए कि रास्ता अगले वाले बदलूंगा फिर एक दोराहे से मैंने एक रास्ता पकड़ लिया और इसी रास्ते पर चलतें चलतें मैंने एकदिन पाया मैं तुमसे इतनी दूर निकल आया हूँ कि तुम किसी भी जरिए मुझे तलाश नही सकती।
जाहिर सी बात है जब तुम लौटी होगी तुमनें उसी आवृत्ति से मेरे बारें में पूछताछ की होगी मगर मेरी छाया गंध स्मृतियां कुछ न तुम्हें मिलेगी इसका इंतजाम मैं करके आया था।
जानता हूँ तुम लेशमात्र भी निराश नही हो न ही तुम इस पड़ताल में पड़ना चाहती कि हम में से किसने पलायन किया है ना ही तुम्हारे पास कुछ सवाल है मगर तुम रास्तों के चरित्र से विस्मित जरूर हो। तुम चौराहों के कौतुहल से अनजान नही हो मगर रास्तों के बदल जाने से थोड़ी परेशान जरूर रहोगी।
सफर एकसाथ कई स्तरों पर जिन्दा रहता है हमारा और तुम्हारा भी रहेगा क्या फर्क पड़ता है बस उसका साथ न हो जिसका साथ हमारे हाथ,काँधे और कदमों ने चाहा था?
या कुछ फर्क पड़ता है !
© डॉ.अजित
तुम्हारा लौटना सम्भावित था और मेरा जाना निश्चित। हम दोनों अपने अलग अलग कोण पर घूम रहे थे इसलिए एकदूसरे में सामनें अलबत्ता तो बेहद कम पड़े और यदि पड़े भी तो अपने अपने दृष्टि दोष के साथ।
साथ चलना हमेशा साथी नही बनाता ये बात तुमने एकदिन किसी दुसरे सन्दर्भ में कही थी मगर यकीनन सच कही थी। कई बार हम खुद ही अप्रासंगिक हो जाते है इसमें किसी का कोई दोष नही होता है इसलिए इस विलगता पर किसी भी किस्म की व्याख्या बेमानी है।
मैं जाने के बाद कुछ देर तक विचार शून्य रहा दिशाबोध भी लोप हो गया था कई चौराहे मैंने इसलिए छोड़ दिए कि रास्ता अगले वाले बदलूंगा फिर एक दोराहे से मैंने एक रास्ता पकड़ लिया और इसी रास्ते पर चलतें चलतें मैंने एकदिन पाया मैं तुमसे इतनी दूर निकल आया हूँ कि तुम किसी भी जरिए मुझे तलाश नही सकती।
जाहिर सी बात है जब तुम लौटी होगी तुमनें उसी आवृत्ति से मेरे बारें में पूछताछ की होगी मगर मेरी छाया गंध स्मृतियां कुछ न तुम्हें मिलेगी इसका इंतजाम मैं करके आया था।
जानता हूँ तुम लेशमात्र भी निराश नही हो न ही तुम इस पड़ताल में पड़ना चाहती कि हम में से किसने पलायन किया है ना ही तुम्हारे पास कुछ सवाल है मगर तुम रास्तों के चरित्र से विस्मित जरूर हो। तुम चौराहों के कौतुहल से अनजान नही हो मगर रास्तों के बदल जाने से थोड़ी परेशान जरूर रहोगी।
सफर एकसाथ कई स्तरों पर जिन्दा रहता है हमारा और तुम्हारा भी रहेगा क्या फर्क पड़ता है बस उसका साथ न हो जिसका साथ हमारे हाथ,काँधे और कदमों ने चाहा था?
या कुछ फर्क पड़ता है !
© डॉ.अजित
No comments:
Post a Comment