Sunday, January 31, 2016

इश्क

इश्श्क...! कभी मर्तबान में कैद मछली सा हसीन तो कभी कच्ची पेंसिल सा नाजुक। इबारत और इबादत के बीच किस्सागोई सा फंसा एक अफ़साना जो रूह के उलझे अहसासों में कंघी करता है। चाहतों का ऐसा आसमाँ जिसमें परिंदे अक्सर अपना घौसला भूल जाते है और उड़ान में भटक कर खुद अपनी किस्मत में जलावतनी लिख देते है।
इश्क इबादत भी है और अदावत भी ये जिंदगी में इस कदर शामिल होता है कि फिर इंच भर कुछ भी हासिल करने की तमन्ना नही रह जाती। मासूम ख्यालों और ख़्वाबों को सिराहने रख सोती पलकों से पूछिए उनकी मुस्कुराहटो का हाल कैसे लब उनसे रश्क करने लगतें है वो नींद में चमकती है। जिंदगी जब करवट बदलती है इन्ही ख़्वाबों से वो रास्ता पूछती है ये अलग बात है कि इश्क की खुमारी में कहाँ से निकले और कहाँ पहूँचे।
इश्क पर तकरीर मुमकिन नही इसमें हौसला कहाँ से अता होता है खुद खुदा भी बयाँ नही कर सकता है। इश्क की पाकीजगी में जब कोई मुर्शीद अपने मुरीद की आँख में गुमशुदगी का सूरमा लगाता है तब कायनात का जर्रा जर्रा रोशन हो उठता है।
इश्क की चोटें गहरी और निशान हलके हुआ करते है ये जितना जताया जाता है उससे कई गुना छिपाया जाता है। इश्क महज महबूब को हासिल करने की तमन्ना नही रखता बल्कि ये दिल की धड़कनों के जरिए सजदा करने की ज़ुस्तज़ु लिए गाफिल रहता है।
हर्फ़ हर्फ़ इश्क की आयत इबादत का पता देती है रूह को कलन्दर बनाती है इश्क का दरवेश महबूब का दीदार रोज़ चश्म ए तर कर लेता है वो मुलाकतों का मुहाजिर नही होता।
जिसकी दीद में ईद परदानशीं रहती है वो उन आँखों की बिनाई में रोज़ इल्तज़ा और हया की तुरपाई करता है ताकि जिस्म के हवाले से इश्क सरे आम न हो जाए।
इश्क महज़ एक लफ्ज़ नही बल्कि एक हादसा है जिस पर जो ईमान लाता है फिर वो खुद पे हंसता है और खुद पर रोता है।
किसी के लिए दुआ करना तो इस इल्म की दुआ करना रब्बा इश्क न होवें....रब्बा इश्क ही होवें।

© डॉ.अजित

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