Friday, January 8, 2016

इदम् न मम्

रोज़ सुबह जब सूरज निकलता है धरती से इजाज़त नही लेता वो जानता है उसका इन्तजार किया जा रहा है इसलिए आ जाता है बिन बुलाए मेहमान की तरह।
बादल कभी कभी सूरज को उसके कद का अहसास दिलाने के लिए ढक लेते है ताकि वो धरती को थोड़ा बैचेन देख सके।
चाँद छलिया है वो अलग अलग कोण से धरती को देखता है खासकर जब रात को कुछ दिनभर की सलवटों को समेटकर धरती सोने को होती है चाँद उसके कान प्रेम की स्मृतियों का मन्त्र फूंक देता है। चाँद धरती के मन को जानता है और सूरज धरती के तन धरती मगर चाँद सूरज दोनों से बेखबर है वो आधा अधूरा खुद को जानती है।
मन का खगोल शास्त्र कम ग्रहण से भरा हुआ नही है धरती की तरह किसी न किसी पल कोई ग्रहण मन की सतह पर रोज़ घटित होता रहता है। इसलिए अब ग्रहण के साथ जीने की आदत हो चली है कोई ख़ास फर्क नही पड़ता थोड़ी देर के लिए अगर अन्तस् में अंधेरा भी पसरता है तो।
सूरज चाँद धरती और ग्रहण इन्हें खगोलीय पिंड से हटकर गहरे प्रतीक के रूप में तुम्हारी वजह से देख पाया मुश्किल वक्त में इनसे थोड़ी हिम्मत मिलती है लगता है कोई बिछड़े दोस्त है जो अपनी बीते हुए कल की कहानी सुनाना चाहतें है।
इनकी कहानी सुनकर मेरे कान बड़े हो गए और नाक छोटी हो गई है एक छोटी नदी मेरे अंदर बहने लगी है वो किसी मुख्य स्रोत नही निकली बस एक जमें हुए अवसाद का सीना उसनें तोड़ दिया है वो भटक रही है अपना रास्ता बनाने के लिए मुझे उम्मीद है वो अपनी तलहटी विकसित कर लेगी एकदिन। मेरे छाती पर एक हरा भरा जंगल उग गया है जिसकी छाँव इतनी गहरी है कि सूरज की रोशनी तक अंदर नही आ पाती है वहां कुछ ऐसे दरख्त उगे है जिनको वानिकी विज्ञानियों ने लुप्तप्रायः मान लिया था यहां उनकी पैदाइश मन के विज्ञान से सम्भव हुई है।
बहुत विषयांतर नही करूँगा जैसा हो भी गया है बस इतना कहूँगा एक तुम्हारी वजह से मैंने रच ली है अपनी एक समानांतर सृष्टि जहां जंगल नदी झरने पहाड़ चाँद सूरज सब के सब मेरे अपने है।
हां धरती की तरह ये मेरा स्थाई दुःख है बस तुम मेरे न हो सके।
चलो कोई बात नही अपना पराया वैसे क्या होता है ये सब तो समय के सापेक्ष मनुष्य के भरम ही तो है।
आना कभी मिलनें एकांत के जंगल में शायद तुम्हारी हंसी से कुछ मन के उदास पंछियो को अच्छा लगे।

'इदम् न मम्'

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