Thursday, January 7, 2016

सफर के नोट्स

अनामिका से उम्मीद की आँखों में काजल लगाता हूँ मैं
मेरा हाथ जरा सा कांपने लगता है।
इस दृश्य में तुम भी अप्रत्यक्ष: शामिल होती हो। बादलों के पीछे एक डाकघर है जहां बैरंग और गलत पते के खत रखे जातें है। डाकिया हम दोनों का पता याद नही कर पाता है हाँ वो लिखावट से बता सकता है कौन सा खत किसका है।
कई दिनों से समन्दर मुझे बुलाता है उसके बुलावे देख तुम्हें याद करता हूँ मगर समन्दर की जिद है कि मुझसे मिलनें अकेले ही आना, तुम्हारे बिना कहीं जाने में एक खतरा यह भी है कि मैं फिर उतना नही लौट पाऊंगा जितना कभी गया था।
तुमनें एक दिन पूछा था मैं कितना लम्बा जीने की इच्छा रखता हूँ तब मैंने कोई प्रभावित करने वाला जवाब दिया था क्योंकि जहां तक मुझे याद है मैंने कुछ साल बताए दरअसल इतने साल जीना चाहता हूँ ये कहना एक किस्म का तात्कालिक छुटकारा था जब मैंने इस सवाल पर गौर किया तो मेरे जीने की चाह साल महीनें या दिन में नही आई मैं जीना चाहता हूँ कुछ किलोमीटर कुछ बसन्त और कुछ पतझड़ थोड़ी सी सुनसान बारिशें रात और दिन के सन्धिकाल पर उदासी के पल गिनते हुए हिसाब लगाना चाहता हूँ वक्त का।
इसलिए अपना पहला वक्तव्य वापिस लेता हूँ वो तुम्हारे किसी काम का नही है।
धरती पर कान लगाता हूँ वो मेरे वजन का हिसाब मेरे कान में बताती है साथ ही वो यह भी कहती है मेरे वजन का बोझ किसी और की ज़िन्दगी में भी शामिल है जब मैं उससे मानचित्र मांगता हूँ तब वो मेरा कान खींचकर कहती है इतने भी मतलबी मत बनों।
फिर मैं चल पड़ता हूँ अनन्त की ओर अज्ञात की ओर।
जो मुझे बाहर से देख रहा है वो बता सकता है मेरी दिशा और भटकाव का मानचित्र।
मेरे पदचिन्हों से जिस दिन लिपि विकसित की जाएगी उस दिन हमारा तुम्हारा सम्वाद सार्वजनिक होगा।

'सफर के नोट्स'

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