Sunday, January 10, 2016

हक

सबसे मुश्किल था तुम्हें हिस्सों में चाहना।
ऐसा नही तुम मुझे सबसे ज्यादा पसन्द थे कुछ जगह तुम औसत तो कुछ जगह औसत से भी कमतर थे मगर जहां तुम बेहतर थे वहां सच में इतने बेहतर थे कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना से मुझे डर लगने लगता था।
मैं चाहती थी तुम्हें कुछ इस तरह से सहेज लूँ कि तुम्हारी इस बेहतरी की तुम्हे भी कानो कान खबर न हो। कुछ मामलों में तुमसे असमहत होने के बावजूद भी कुछ बिंदु ऐसे भी थे जहां मैं खुद से असहमत होते हुए भी तुमसे सहमत हो जाती थी।
तुम्हारी अनुपस्थिति में मैंने महसूस किया कि सामान्य होने का अपना एक आकर्षण है जहां आपके पास बहुत कुछ बखान या व्याख्यान के लिए न हो वहां भी अनुराग की छाँव पहुँच सकती है।
तुम समय से आगे थे या पीछे ये नही जानती मगर इतना जरूर जानती हूँ तुम्हारे साथ बिताया मेरा छोटा समय इतना विस्तार पा जाता था कि मैं उसके कोलाज़ में मनमुताबिक़ रंग भर सकती थी।
तुम्हें सोचते हुए मैंने करवटों के अंतराल पर अलग अलग भाव महसूस किए कभी मुझे खुद पर गुस्सा आया तो कभी तुम पर बेशुमार प्यार भी और ये वो प्यार था जिसे मैं कब की भूल चुकी थी। ये सच है प्रेम जितना प्रतिदान मांगता है उतनी क्षमता नही है मुझमें और न ही तुम कहीं ठहरे हुए हो तुम सतत् एक यात्रा में हो यह मैं मुद्दत से देख रही हूँ मगर फिर भी तुम्हारे अस्तित्व के कुछ ऐसे निर्मल पक्ष है जिन्हें सोच कर मेरे चेहरे पर एक इंच मुस्कान आ जाती है और पलक बेसबब छलक उठती है।
इस मतलबी दुनिया में तुम इतने लापरवाह हो कि तुम्हें खुद नही पता है कि तुम क्या हो और इसी लापरवाही से मुझे रश्क हो रहा है कोई ऐसा कैसे हो सकता है जबकि तुम्हारे अंदर असीम सम्भावनाएं है तुम उन पर बात करना पसन्द नही करते तुम बात भी क्या करते हो पहाड़ से उतरते वक्त चक्कर ज्यादा आए थे या पहाड़ पर चढ़ते वक्त...धत्त ! यहां मैं तुम्हारे सामने घूम रही होती हूँ और तुम पहाड़ की कहानी सुनना सुनाना चाहते हो।
मुझे डर लगता है कभी कभी क्योंकि वक्त ऐसा हमेशा नही रहेगा न ऐसी मैं रहूंगी और न शायद तुम ऐसे रहोगे शायद इसलिए लगा रही हूँ तुम ऐसे रह भी सकते हो क्योंकि तुम बेपरवाह जीने के आदी हो।
मैंने तुमसे एकदिन पूछा कि क्या बदलाव एक अपेक्षित छल होता है? तुमनें कहा अपेक्षा है तो छल का होना कोई बड़ी बात नही ! या ये अपेक्षाभंजन का युक्तिकरण भी हो सकता है उस दिन मैंने जाना तुम किसी और दुनिया के हो।
खैर ! जिस भी दुनिया के हो ऐसे ही रहने मैं भले ही कल बदल जाऊं तुम मत बदलना।
इतना कहने का हक समझती हूँ तो कह रही हूँ।

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