Tuesday, February 14, 2017

अधूरे खत

कभी कभी लगता है तुम दूर जा रहे हो। इतने दूर कि दोनों आँखों से तुम्हें ठीक से देख नही पाती हूँ। एक आंख बंद करके तुम्हें देखने की कोशिश करती हूँ और ये कोशिश भी तब करती हूँ जब तुम सामने नही होते। तुम्हारी तस्वीर को एक आँख बंद करके देखती हूँ ठीक वैसे ही जैसे किसी को अच्छा खासा नशा हो गया हो।

कभी कभी किसी शायर की शेर की शक्ल में दी गई नसीहत याद आती है कि तुम्हें नजर के ज्यादा करीब ले आई मैं एक हद होती है दिखाई देने की। खाली वक्त में कभी कभी अपनी उंगलिया चटकाते हुए ऐसा लगता है जैसे कुछ हसीन लम्हो को चटकाकर तोड़ रही हूँ मुझे खुद की क्रूरता पर आश्चर्य होता है मै खुद के प्रति इतना निर्मम कब से हुई मुझे खुद ही पता न चला।

आज सुबह मैंने अपने नाखुनों को गौर से देखा उनकी नेलपॉलिश जगह जगह से उतर गई है,नेलपॉलिश उतरना कोई अनूठी बात नही है ये अक्सर होता है मगर मैंने इस बार महसूस किया बची हुई नेलपॉलिश ने नाखुनों पर कुछ अजीब से नक़्शे खींच दिए मुझे कभी वो अधूरे अक्षर लगने लगते है तो कभी कोई समंदरी टापू।

उन्हें देख मुझे खुद पर संदेह होने लगता है कभी इन्ही नाखुनों की कलात्मक बुनावट की मदद से मैंने तुम्हारी हाथ की रेखाएं ठीक वैसे पढ़ी थी जैसे कोई दाल से कंकर बीनता है। अब मुझे खुद के नाखून निर्वासन के पते दिखने लगे है उन पर अलग अलग द्वीपों के मानचित्र और पते रोज़ बन बिगड़ रहे है इन्हें पढ़ने के लिए मुझे तुम्हारी उस गुप्त विद्या की जरूरत है जिसमें तुम उदासी में नाराजगी और और मुस्कान में छिपा दुःख पढ़कर बता दिया करते थे।

क्या तुम सच में बहुत दूर निकल गए हो? या यह मेरा महज एक वहम है! मेरा दिल इसे वहम ही करार देता है मगर दिमाग कहता है कि जो आदमी सामने खड़ा होने के बावजूद धुंधला दिखाई दे रहा है उसका वजूद अब शायद जगह बदल चुका है।
मैं तुम्हें परछाईयों में नही तलाशना चाहती ना तुम्हारी छाया की पीछा करना चाहती हूँ, हो सके तो मुझसे किसी दिन अँधेरे में मिलो मैं तुम्हारी उपस्थिति महसूसना चाहती हूँ इसके लिए मुझे रोशनी की जरूरत नही है क्योंकि रोशनी में केवल तुम्हारी छाया दिखाई देती है तुम नही।

मैं चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष से कृष्ण पक्ष में जाने तक प्रतिक्षा करूंगी मैं तुम्हें अँधेरे में खुली आँखों से देखना चाहती हूँ ये चाह थोड़ी अजीब जरूर है मगर मुझे रोशनी में तुम्हें एक आँख से देखने में अब अच्छा नही लगता यदि तुम सोच रहे हो कि मै कहूंगी कि मुझे ऐसा करके डर लगता है तो ये सच नही है तुम्हारे साथ मुझे इतनी आश्वस्ति है अब मुझे डर किसी बात का नही लगता।

फ़िलहाल जगजीत की एक गजल बज रही है अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना...मैं ऐसी मासूम तमन्ना पर हंस पड़ी हूँ मुझे पता है तुम जाने के लिए ही आओगे मगर मैं पूरे दिल से चाहती हूँ तुम एक और जरूर आओ।

'अधूरे खत'

No comments:

Post a Comment