Wednesday, March 8, 2017

सोफी

समन्दर किनारे सोफी अकेली बैठी है। वो रेत पर खुद का नाम लिख कर उसे एक गोल घेरे में कैद कर देती है फिर उसके नीचे एक कोने में स्माइल बनाकर केवल एस लिख देती है।
मुस्कान उसका स्थाई भाव है जो उसके चेहरे पर उदासी पढ़ने का अवसर नही देता है यहां तक खुद उसको भी।
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सोफी कहती है समन्दर एक बहलावा है मै उससे पूछता हूँ फिर नदी क्या है? नदी एक यात्रा है जिसके सहारे हम किनारों का दुःख पढ़ सकते है।
दुःख क्या केवल लिखे जा सकते है मैंने दुःख पढ़ने पर उसकी प्रतिक्रिया चाहता हूँ इस पर सोफी कहती है दुःख केवल अपने अंदर बसाए जा सकते है वो निकले या न निकले ये उनकी मर्जी।
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क्या तुम्हें खुद के स्त्री होने पर खेद है? मैंने यूं ही पूछ लिया उस दिन जबकि उस दिन समन्दर किनारे इस बात को पूछने का माहौल नही था।
खेद दरअसल एक सुविधा है मगर खेद कोई मुक्ति नही इसलिए मेरी खेद में रूचि नही है मैं उत्सव और खेद से दोनों से मुक्त रहना चाहता हूँ स्त्री होना मेरे लिए मात्र एक अवस्था नही बल्कि एक अवसर है मै दुःखों को प्राश्रय दे सकती हूँ।
क्या अभी तुम्हारे गले लग सकता हूँ? मैने संकोच से पूछा
गले लगने का कोई समय नही होता है तुम जब चाहों लग सकते हो बशर्ते तुम्हें राहत नसीब हो।
सोफी इतना कहकर मुस्कुरा पड़ती है फिर गले लगने का ख्याल लहर के साथ समन्दर की तरफ लौट जाता है।
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#सम्वाद 

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