Tuesday, March 28, 2017

अला-बला

उस लड़की के हाथ में सिखणी वाला कड़ा था. उसी हाथ की बाजू पर किसी मौलवी का दिया एक काला ताबीज़ भी बंधा था।
वो चप्पलों में ऐसे अंगूठे गड़ाकर चलती जैसे उसे खुद के जमीन पर होने का पूरा यकीन न हो।

उसको पीछे मुड़कर देखते हुए लगता है जैसे कोई जंगली बेल दूसरे पेड़ को अपनी गिरफ्त में लेना चाहती हो।
मेले और साप्ताहिक हाट बाजार में उस लड़की को देखकर ऐसा लगता जैसे वो मनुष्यों की जरूरत और उत्सवधर्मिता का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए नियुक्त की गई हो।

वो चंचल नही थी उसमें कोई ठहराव भी नही था वो नदी के जैसी तरल थी और किनारों के जैसी सुनसान।
उसके हाथ में जो स्टील का कड़ा था वो उसके हाथ में ऐसा दिखता था जैसे ग्रह का कोई उपग्रह अपनी नियत कक्षा में चक्कर लगाता हो उसकी बाजू पर कसा हुआ ताबीज़ उसे भला कैसे किसी अला बला से महफूज़ रख पाता  क्योंकि वो लड़की खुद में एक हसीन बला थी।

एक ऐसी बला जो जिधर से गुजर जाए उन रास्तों पर हकीकी सुरमें बिखर जाए।
उसकी आँखों में सूखा काजल था वो बेपरवाह और बेफिक्र जीने की आदी थी उसने रच ली थी अपनी लापरवाही में एक अनूठी खूबसूरती।

वो हवा को लोरी से सुला सकती थी बादल को गुनगुनाकर बुला सकती थी। बारिश को वो ओक में भरके मंत्र की तरह उड़ा सकती थी।
आसमान उसे देख रश्क करता था ज़मीन उसके वजन के बराबर के दुःख देख रोया करती थी।

'वो लड़की'
© डॉ. अजित

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