Sunday, April 27, 2014

राफ्ता

पिताजी के निधन के बाद जब से गाँव लौटा हूँ ज्यादा कुछ लिखने का मन नही होता है यहाँ तक कमेन्ट करने का भी नही। लेकिन हाँ पढ़ने का लोभ जरुर बना रहता है अपने दौर बेहतरीन लोगो से राफ्ता फेसबुक के जरिए भी बना है उनको पढ़कर अच्छा लगता है लेकिन फेसबुक का न्यूज़ फीड में पोस्ट दिखाने का तन्त्र बहुत मतलबी किस्म का है मसलन हम जिन मित्रों की पोस्ट पर कमेन्ट करना बंद कर देते है यह उनकी पोस्ट आपकी फीड में दिखाना बंद कर देता है यानि किसी का लिखा अगर केवल पढना भर भी है तो आपको लाइक या कमेंट की अनिवार्यता से गुजरना होगा वरना जुकरबर्ग के यांत्रिक चेले आपको उस मित्र के लिए और उस मित्र को आपके लिए स्वत: अप्रासंगिक मानकर दोनों की पारस्परिक लिखने पढ़ने की लाइन काट देंगे।
कई मित्रों की पोस्ट जब नदारद दिखने लगी तो पहले सोचा कि शायद वो व्यस्त है लिख नही रहे होंगे परन्तु जब उनकी प्रोफाइल देखी तो पाया कि वो नियमित रूप से लिख रहे है बस मुझे खबर नही वजह की पड़ताल करने पर पता चला कि उनकी पोस्ट्स पर मेरी हाजिरी नही लगी तो फेसबुक ने उनके लिए मुझे आउटडेटड समझ लिया।
हालांकि यह पूरी तरह से तकनीकी मसला है लेकिन यह मानवीय स्वभाव जैसा ही है। मुझे फिलहाल तो प्रो.वसीम बरेलवी का यह शे'र याद आ रहा है कोई इसे जुकरबर्ग के कान में भी फूँक दे तो कुछ भला हो--
मै उसके घर नही जाता वो मेरे घर नही आता
मगर इन एतिहातों से ताल्लुक मर नही जाता।

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