Sunday, May 7, 2017

थाप

ढ़ोल बजता है तो धरती की तन्द्रा टूटती है ढ़ोल की हर थाप आसमान के नाम धरती का एक कूट संकेत भेजती है जिसे रास्ते में अधर में लटका मनुष्य पकड़ लेता है वो उससे अपने दुःखों की ऊब सुख की शक्ल में सुनाना चाहता है।

धरती और आसमान जब मनुष्य को उत्सव के निमित्त थिरकता देखते है तो दोनों बारी बारी से अपने बोझ की अदला-बदली मनुष्य की ओट में करके देखते है।

नृत्य मनुष्य की ओट है जिसमें दो बिछड़े लोग कुछ देर के लिए बेपरवाह होकर मिलते है। ढ़ोल की आवाज़ डूबी आत्मा को इतने मनोयोग से आवाज़ देती है कि वो अपने अल्हड़पन के साथ बावरी हो मन की सारी खिड़कियां एकसाथ खोल देती है।

ढ़ोल के पीठ पर कसे सूत के डोरे स्त्री की एड़ी के पसीने से अपना मुंह धोते है दोनों अवसर की दृष्टि से एक दूसरे के प्रति कृतज्ञ भी महसूस करते है क्योंकि दोनों ये बात अच्छी तरह जानते है।

 थिरकता हुआ तन और निकलती हुई ध्वनि दोनों अपने साथ को छोड़कर कहीं वहां दूर निकल जातें है जहां एक कबीला अनजाने लोगों का बसता है।
ढोल के सहारे नाचना उन्ही लोगों से मिलने की एक दैहिक हरकत भर है जिसमें आत्मा पहली बार हमारी देह को धन्यवाद कहती है वो भी दिल के जरिए।

इस घटना पर लोग केवल अपना दिमाग लगा सकते है क्योंकि दिल तब तक उनके दिल से निकल कहीं और निकल चुका होता है।

'थाप की नाप'

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