Saturday, May 17, 2014

चासनी

घृणा और प्रेम दोनों ही मनुष्य की अपनी स्वभावगत अनुकूलता और प्रतिकूलता द्वारा बनाएं गए प्रतिमान है। जो हमारी मानसिक सुविधा अथवा अनुकूलता के हिसाब से फिट नही बैठता तो घृणा का पात्र बना देना और जो हमारी मानसिक सुविधा के अनुकूल है उसे प्रेम की चासनी में डूबो देना इंसानी फितरत का हिस्सा है।
मनुष्य बेहद चालाक प्राणी है युक्तियाँ गढना उसका पुराना शगल रहा है प्रेम हो कि घृणा अन्तोत्गत्वा यह एक नैसर्गिक मनुष्य की हत्या कर उसको मन का गुलाम बना देती है। बहुत व्यापक अर्थो में देखें तो प्रेम और घृणा दोनों की संज्ञानात्मक लोच में कोई बड़ा फर्क नजर नही आता हाँ प्रतिक्रिया जरुर भिन्न होती है। प्रेम में डूबा व्यक्ति जानते हुए भी दुनिया की कटुताएं नही देख पाता और घृणा में लिप्त मनुष्य दूनिया की ख़ूबसूरती नही देख पाता। निजि तौर मै लम्बे समय तक न किसी से प्रेम कर पाता हूँ और न ही घृणा ही एक समय बाद दोनों अप्रासंगिक लगने लगती है।
अलबत्ता कई दफे तो यह भी होता है कि मनुष्य किसी से प्रेम और घृणा दोनों एक साथ करता है आध्यात्मिक मूल्यों के हिसाब से यह सहअस्तित्व और बिना सम्पादन जीवन जीने की पहली सीढ़ी हो सकती है जहां से आगे बढ़ने पर मनुष्य को न प्रेम से व्यामोह उत्पन्न होता है और न घृणा से जुगुप्सा। जीवन में कुछ लोगो की घृणा का पात्र बनने के बाद मैंने महसूस किया कि यदि इसको ईगो के हर्ट होने से अलग करने की रेसिपी आपने विकसित कर ली तो यह घृणा भरें हृदय आपके व्यक्तित्व परिष्कार में सहायक हो सकते है प्रेम जहां आपको बावरा बनाता है वहीं घृणा आपको चैतन्य बनने की प्रेरणा देती है बशर्ते किआप इसे बर्दाश्त करने की हिम्मत रखते हो।

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