दृश्य एक:
निधि की एक किताब गुम हो गई है. वो उसे तलाश नही रही है बस
उसे याद कर रही है. कई बार खोई हुई चीजों के गुम होने पर हम उसको तलाशना नही चाहते
बस उसे याद कर-कर के घुलना चाहते है. निधि भी आज सुबह से बहुत धीरे-धीरे ऐसे ही
घुल रही है. गुड या चीनी की तरह नही बल्कि रोशनाई की तरह.
वो खुद से सवाल करती है क्या कोई चीज़ हमें इसलिए प्यारी
होती है कि उसके खो जाने पर हम उसका शोक मना सके. इसका जवाब उसे ठीक ठीक नही मिलता
है. वो किसी वस्तु को खोने को सहेजने के कौशल से चूक जाना समझती है.
निधि के पास एक बेहद पुरानी किताब है जो कभी टेबल पर तो कभी
बेड के नीचे पड़ी मिलती है मगर आज तक वो कभी ग़ुम नही हुई निधि के लिए उस किताब का
कोई ख़ास मूल्य नही है मगर वो गुम नही हुई आजतक.
निधि उसे देखती है और मुस्कुरा कर बुक सेल्फ में रख देती
है और अंत में खुद को यह दिलासा देती है कि जिसे खोना होता है वो खो ही जाता है
एकदिन और जिसे साथ रहना होता है वो चलता रहता है चुपचाप अपनी गति से.
निधि को यह बात जरुर खराब लगी उसे अपनी एक जरूरी किताब
खोने पर अपनी एक सामान्य किताब की उपस्थिति का बोध हुआ और फिर उसे उससे प्यार हुआ.
दृश्य दो:
पिता-पुत्र झील किनारे अकेले बैठे है. बेटा अपने पिता से
पूछता है
‘झील के नजदीक बैठना अच्छा क्यों लगता है’?
पिता इस सवाल पर थोड़ा चौंकता है फिर मुस्कुराते हुए जवाब देता है
‘ शायद इसलिए क्योंकि मनुष्य जीवन में एक कोलाहल रहित
ठहराव चाहता है’
पुत्र इस जवाब से संतुष्ट है फिर दोनों चुपचाप बैठे रहते
है.
अचानक पिता सवाल करता है , क्या तुम आसमान के रंग को झील
में देख पा रहे हो’?
बेटा कहता है ‘नही मुझे पानी में केवल बादल नजर आते है वो
भी कभी-कभी’
फिर पिता झील देखना शुरू कर देता है और बेटा आसमान
दोनों एक दूसरे की आँखों में देखते है और समझ जाते है
रंग और गति दोनों दरअसल अवस्थाएं मात्र है
मनुष्य के पास अनुमान परिभाषा और व्यख्या मात्र है जिनकी
थोड़ी देर बाद
बेटा झील में एक छोटा पत्थर का टुकडा डालकर जल में कोलाहाल
पैदा करता है
पिता आसमान में बादल देखकर बारिश का अनुमान लगाता है.
दृश्य तीन:
जंगल में दो आदिवासी रास्ता भटक गये है.
वो अपने पदचिन्ह देखने की कोशिश कर रहे है
रास्ते उनकी मासूमियत पर फ़िदा है
वो पेड़ के तनों पर अपने कान लगाते है
अपने कबीले का पता उन्हें देना चाहते है
मगर पेड़ एक गैर की बारात में गये मेहमान की तरह चुप है
फिर अपनी बोली भाषा में आवाज़ लगाते है
जब आवाज़ की प्रतिध्वनि उन तक लौटकर आती है
वो समझ जाते है ये जंगल उनका नही है
वो रौशनी से अँधेरे की तरफ जाते है
फिर अकेले अकेले रास्ता तलाशने निकल जाते है
क्योंकि उन्हें पता है
साथ रहकर भटका जा सकता है
रास्ता हमेशा अकेले चलने से ही मिलता है.
© डॉ. अजित
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