दृश्य एक:
नदी किनारे एक मंदिर है.
यह एक बरसाती नदी है जो बारिश के दिनों में यौवन पर रहती फिर साल भर बिरहन की तरह
अकेले सिसकते हुए बहती है. मंदिर के प्रवेश द्वार से पहले बारह सीढ़ियां है. मंदिर
के गर्भ गृह में एक बड़ा साल थाल रखा है जिसके ईश्वर के आचमन के लिए जल रखा है. उसी
में कुछ भोर के टूट हुए तुलसीदल भी तैर रहे है. वो अपने बचपने पर इस कदर मुग्ध है
कि उन्होंने ईश्वर की तरफ देखना भी बंद कर दिया है.
एक दीप टिमटिमाता है
उसकी टिमटिमाहट की किसी निर्बल की मन्नत का बल शामिल है इसलिए वो ईश्वर को खुश
करने के सारे जतन कर रहा है मगर एक ईश्वर है कि उसे फूंक मारकर बुझाने की जुगत में
है. ईश्वर के पास मंदिर के अन्दर यही एक मात्र कौतूहल शेष बचा है.
दृश्य दो:
मंदिर पर कुछ धुंधले
भित्तिचित्र बचे है उन पर छत से पानी रिस कर आता है और यह पानी उन भित्तिचित्रों
के कला संयोजन में एक तरल हस्तक्षेप करता है उसके बाद चित्र के संदेश बदल गए है.
वाराहमिहिर का एक भित्तिचित्र है उस पर पानी कुछ इस तरह से फ़ैल गया है कि लगता है
जैसे साक्षात विष्णु और इंद्र की लड़ाई चल रही है इस तरह से कला प्रयोजन कथित
देवयोग के कारण अपना विस्तार पा रहा है.मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक पीपल का छोटा
पेड़ उग आया है वनस्पति विज्ञानी इसे किसी पक्षी की करामात बता सकते है मगर मुझे यह
पीपल का छोटा बच्चा दूध,कलेवा और धूपबत्ती की ऊब से जन्मा लगता है यहाँ से
यह सीधा सूरज से बात करता है और वो हवा से कहता है कि तुम्हारी शीतलता का सारा सौन्दर्य
सूरज के अनुग्रह के यहाँ बंधक रखी हुई है.
दृश्य
तीन:
मंदिर
के पीछे विजया के कुछ पौधे उग आए है. यहाँ उनके कौमार्य को कोई खतरा नही है इसलिए
हवा में झूमते देखें जा सकते है शाम के वक्त उनकी उदासी देखने के लिए मंदिर के
अहाते से कुछ चींटीयां उनके कोमल तनो के पास तक जाती है मगर उन्हें डर है कि विजया
कहीं उनके होश स्थगित न कर दें इसलिए वो दूर से कतारबद्ध होकर उन्हें देखती है और
लौट आती है. उनके समूह में अफवाहों के लिए कोई जगह नही है इसलिए बाहर के किसी विषय
पर वहां बात नही होती है उनका मुख्य विमर्श भोजन से जुड़ा है. कुछ मादा चीटीं जरुर
आटें में घुली कटुता का जिक्र करती है मगर उनकी चिंताओं पर नर शर्करा की उपलबध्ता
की स्थिति बता कर पर्दा डाल देते है.
दृश्य
चार:
मंदिर
में वे दोनों कुछ मांगने आते है मगर जैसे ही ईश्वर के सम्मुख होते है उन्हें ईश्वर
खुद निर्धन लगने लगता है वो प्रार्थना के लिए हाथ जोड़तें है मगर उनके प्रार्थना
में ईश्वर के लिए प्रार्थना खुद के दुखों के विज्ञापन से पहले शामिल होती है. वे
दोनों मंदिर से उलटे पैर लौटना चाहते है मगर ईश्वर को देखते हुए लौट पाना मुश्किल
है इसलिए वो ईश्वर की तरफ पीठ कर लेते है. यह बात ईश्वर को आत्मतोष देती है कि कम
से कम वो दोनों ऐसे है जिन्हें ईश्वर से कुछ नही चाहिए.
दृश्य
पांच:
ईश्वर
उन्हें सच में कुछ देना चाहता है मगर जब वह अपनी जेब टटोलता है तो वहां उसे उनकी
कामनाओं के कोई पत्र नही मिलते है इसलिए ईश्वर यह मान लेता है कि उनकी कोई मन्नत
उससे नही जुडी है.
ईश्वर
का यह मानना मंदिर की सत्ता के लिए एक सुखद संकेत है. घण्टे घंडियालो के शोर में
ईश्वर थोड़ी देर सोना चाहता है क्योंकि एकांत में उसे वैसे भी नींद नही आती है. वो
मनुष्य की तरफ देखता है और मनुष्य उसकी तरफ देखतें है.
इसी
आशा के कारण मनुष्य और ईश्वर दोनों सदा के लिए सुरक्षित है.
‘मन मेरा मंदिर’
© डॉ. अजित
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