मैंने खुद को उसके अंदर एक धीमी मौत मरते हुए देखा
था।
यह किसी उपन्यास के पात्र का संवाद हो सकता था।
मगर यह एक किस्म का निजी यथार्थ था जो इतनी सफाई से और न्यून गति से घटित हुआ था कि
जब तक इसका बोध हुआ यह घटित हो चुका था। हालांकि किसी के अंदर खुद को धीमी मौत को आप
स्थगित कर सकते हैं मगर यदि यह एक बार शुरू हो जाए तो फिर इसे टाला नहीं जा सकता है।
किसी के गहरे अनुराग,अभिरुचि और सपनों के संसार से निर्वासन मिल जाना सुखद नहीं था। मगर उसे देखते हुए यह जाना जा सकता था कि सम्बन्धों
का भूगोल मनोविज्ञान तय करता है यह विषयगत अतिक्रमण है। मगर किसी के मन जब आपको लेकर
दिलचस्पी समाप्त होने लगती है तो सबसे पहले इसकी सूचना मन ही मन को देता है।
दो लोगों की गहरे अपनत्व से भरी यात्रा को यूं
यकायक खत्म होना दिखने में एक तात्कालिक बात लग सकती है मगर इसकी भूमिका धीरे-धीरे
बहुत पहले लिखी जा चुकी होती है। एक अंधविश्वास से भरा कथन यह भी कहा जा सकता है- 'बाज़ दफा हमें खुद ही खुद की नजर लग जाती है'। यहाँ भी
कुछ-कुछ ऐसा समझा जा सकता था।
दरअसल, एक लोकप्रिय
बात यह कही जाती है कि दो असंगत लोग लंबे समय तक साथ रह सकते हैं क्योंकि उनका अलग
होना एक किस्म की ऊर्जा पैदा करता है मगर मैं इस कथन की प्रमाणिकता से कम ही सहमत हुआ
था। मुझे लगता था कि साथ रहने या साथ चलने के लिए साम्य-वैष्मय से इतर एक चीज जरूरी
होती है कि हमारे पास कितना धैर्य है। और मैंने धैर्य से चूकने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध
कराए थे। धैर्य से चूकना एक खास किस्म की अनिच्छा या खीज भरता है और मनुष्य को अपने
चुनाव पर संदेह होने लगता है। मूलत: मेरा अस्तित्व इसी संदेह के ट्रेप में आकर फंस
गया था।
दो व्यस्क लोगों के मध्य असहमतियाँ हमेशा होती
हैं और सहमत या असहमत होना मनुष्य का मन:स्थिति सापेक्ष मसला भी है। मगर उसके अंदर
मैंने सहमति-असहमति से इतर मुझे लेकर एक महीन निराशा दिखी थी और वो इतनी महीन निराशा
थी कि शायद उसे भी वह स्पष्ट नजर नहीं आ रही थी। उसने उसका कोई दूसरा नामकरण किया था
जो न सच था न झूठ।
अंतत: मनुष्य के पास कारक-कारण के पैटर्न को समझने
के लिए कुछ तर्क तलाशने के अलावा ज्यादा कुछ बचता नहीं है। मैंने थोड़ी देर वह उपक्रम
किया और अन्तर्मन ने जब मुखरता यह कहा कि तुम्हारी उड़ान अब रास्ता भूल चुकी है तो उसके
पास असीम आकाश को देखने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मेरे पास आकाश के सौंदर्य
को लेकर मुग्धता नहीं थी डरती पर लौटने का भय भी नहीं था। मेरे पास जो था उसे नियति
नहीं कहा जा सकता था बस अंदर से ही आवाज़ आती थी आखिरकार एकदिन यह तो होना ही था।
'अधूरे-वृतांत'
©डॉ. अजित